वक्त की शोख़ सरगर्मियों से
दूर जा गिरा हूँ छिटककर
नहीं आता कोई बरसों का साथी नज़र
चेहरा अपना भी
कुछ चेहरे टटोले हैं यादों में अक्सर
पर धुंधला इक कोलाज-सा कुछ बन रह जाता है
अपना चेहरा ढूंढा है उसमें कई बार
हर चेहरे पर अटकती आँखें
आगे बढ़ जाती हैं
क्या गुज़रे वक़्त में मेरा कोई दख्ल नहीं था ?
आईने में देखा है जिसको अभी-अभी
कल शायद इसको फिर न देख सकूं
माथे पे उग आएं शायद कुछ और लकीरें
आवाज़ हो बदली-बदली सी
आँखों में बदले सालों की बदली तारीख़ें
जब दफ्तर से लौटूं
बैठ के इक दिन खोजूंगा ख़ुद को शायद
है शुकर, बचाए रखा है
तुमने अपनी यादों में मुझे।
सोमवार, 21 जून 2010
बुधवार, 16 जून 2010
चलेगी जून में बड़ी ही ठेठ हवा
पढ़ना छूट जाए तो लिखना भी छूट सा जाता है। अरसे से न ही कोई कविता पढ़ी है, न गज़ल सो जब लिखने बैठा तो बड़ी मुश्किल हुई। बहरहाल जो लिखा, जैसा लिखा वो यही है -
शहर से गाँव तक एक हवा
धूप से छाँव तक एक हवा
चुभ गया तीर की तरह जी में
साथ लाई जो लफ्ज़ एक हवा
चाल अपनी ही रख मगर एक पल
ज़माने की भी ज़रा देख हवा
मिरे घर आई थी नश्तर लेकर
साथ बैठी तो गई नेक हवा
लजाती सिकुड़ी सहमी हो भले ही
चलेगी जून में बड़ी ही ठेठ हवा
तुम्हारी मर्ज़ी आज जैसे चाहे जिओ
कल निकालेगी मीन-मेख हवा
जो खरीद रहा है वही बिक भी रहा
कमाल जादू दिखाती है देख हवा.
शहर से गाँव तक एक हवा
धूप से छाँव तक एक हवा
चुभ गया तीर की तरह जी में
साथ लाई जो लफ्ज़ एक हवा
चाल अपनी ही रख मगर एक पल
ज़माने की भी ज़रा देख हवा
मिरे घर आई थी नश्तर लेकर
साथ बैठी तो गई नेक हवा
लजाती सिकुड़ी सहमी हो भले ही
चलेगी जून में बड़ी ही ठेठ हवा
तुम्हारी मर्ज़ी आज जैसे चाहे जिओ
कल निकालेगी मीन-मेख हवा
जो खरीद रहा है वही बिक भी रहा
कमाल जादू दिखाती है देख हवा.
शनिवार, 5 जून 2010
इसका भी बाज़ार है
यह बस सीधे वैसा है, जैसा उपजा, बिना किसी काट-छांट के -
गज़ब की भीड़ है, शोर है, रफ़्तार है
जिसे भी देखिये वो थोडा सा बेज़ार है
जब भी बेची अपनी मेहनत बैठकर रोया
हर बार ही घाटा है क्या व्यापार है
रोज़ ही होते हैं वादे बेहतरी के बेशुमार
रोज़ लगता कल ही का तो अखबार है
जब लुट चुकीं उम्मीदें सारी उसके जीने की
फिर है चर्चा ख़ुदकुशी का गुनाहगार है
दोस्ती इतनी न जताओ कि कहना पड़े
दोस्त तो अच्छा है, थोडा सा बीमार है
मैं अपनी भूख से शर्मिंदा क्यों लगती है मुझे
क्या नहीं जानती कि इसका भी बाज़ार है
गज़ब की भीड़ है, शोर है, रफ़्तार है
जिसे भी देखिये वो थोडा सा बेज़ार है
जब भी बेची अपनी मेहनत बैठकर रोया
हर बार ही घाटा है क्या व्यापार है
रोज़ ही होते हैं वादे बेहतरी के बेशुमार
रोज़ लगता कल ही का तो अखबार है
जब लुट चुकीं उम्मीदें सारी उसके जीने की
फिर है चर्चा ख़ुदकुशी का गुनाहगार है
दोस्ती इतनी न जताओ कि कहना पड़े
दोस्त तो अच्छा है, थोडा सा बीमार है
मैं अपनी भूख से शर्मिंदा क्यों लगती है मुझे
क्या नहीं जानती कि इसका भी बाज़ार है
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