मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

दलित शब्द के मायने

         वर्तमान में जबकि दलित शब्द सिर्फ एक समुदाय विशेष का पर्याय बन चुका है तब इस शब्द के सही मायनों में जाना भी बेहद ज़रूरी हो गया है। एक शब्द जब किसी समुदाय की पहचान बन जाए तो इस पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आख़िर क्यों वह शब्द एक पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है।
        दलित शब्द की उत्पत्ति में अगर हम जाएं तो यह शब्द संस्कृत के "दल" से बना है, जिसका अर्थ है - अन्य हिस्से से टूटा हुआ, तंगहाल, जिसके साथ ठीक व्यवहार न किया जाता हो, दबा या कुचला हुआ। आर्य समाज द्वारा शुरू किये गए कार्यक्रम "दलितोद्धार" के बाद यह शब्द किसी समुदाय विशेष के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ। दबे हुए या कुचले हुए के संदर्भ में ही एक समुदाय विशेष के लिए 1930 में यह शब्द हिन्दी और मराठी में उपयोग किया गया। 1930 में  पूना से प्रकाशित समाचार-पत्र "दलित-बंधु" में इस शब्द का प्रयोग किया गया  और संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने अपने उद्बोधनों में एक समुदाय विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग किया।
          शूद्र,  अंत्याज, अवर्ण, अछूत और महात्मा गांधी द्वारा प्रचलित "हरिजन" अर्थात् ईश्वर के जन (अछूत माने जाने वाले लोगों के साथ भेदभाव समाप्त करने की दृष्टि से महात्मा गांधी ने इस शब्द का उपयोग किया था) जैसे संबोधनों की परिधि में विभिन्न जातियों का यह समुदाय आज अपने लिए "दलित" शब्द को अपना चुका है। शाब्दिक अर्थ के संदर्भ में इस समुदाय द्वारा दलित शब्द को अपनाना उसकी सामाजकि परिस्थितियों को तो दर्शाता ही है साथ ही मनोवैज्ञानिक दशाओं को भी स्पष्ट करता है।
         समुदाय विशेष के लिए "दलित" शब्द का प्रयोग किया जाना और उस समुदाय द्वारा सम्बोधन के रूप में इस शब्द को स्वीकारना, दोनों ही प्रक्रियाएं एक नज़र में समान दिखाई देती हैं परन्तु मूलबोध में दृष्टिकोण का फ़र्क है। किसी हद तक यह फ़र्क दया और रोष का भी है। मानव स्वभाव में किसी को दबा या कुचला हुआ मान लेने पर स्वयं की श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान और उसके प्रति दया प्रस्फुटित होना एक साधारण सी बात है क्योंकि यह हमारे अहं तो तुष्टि प्रदान करती है, परंतु स्वयं को दबा या कुचला हुआ मान लेना एक साधारण बात नहीं है क्योंकि यह सबसे कमज़ोर होने, अश्रेष्ठ होने, अक्षम होने, वंचित होने की तमाम कुंठाएं उत्पन्न करता है। यह कुंठाएं सम्मिलित होकर उस रोष को जन्म देती हैं जो व्यक्तिगत से बढ़ते हुए समुदाय का सामुहकि आक्रोश हो जाता है। आज तमाम संगठनों द्वारा दलित अधिकारों के लिए किये जा रह आंदोलन के मूल में यही आक्रोश और इस आक्रोशजनित प्रश्नों के जवाब की तलाश शामिल है।
        "दलित" के शाब्दिक अर्थ के अनुसार हर वह व्यक्ति जो आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक रूप से दबा हुआ है अर्थात् जिसका दैनिक जीवन भी किसी अन्य की इच्छा से नियंत्रित है, दलित है। वह किसी भी  धर्म या जाति का हो सकता है। किन्तु आज यह शब्द एक समुदाय विशेष का पर्याय बन गया है। दरअसल वर्षों पहले निर्मित वर्ण व्यवस्था और मनुवादी नियमावली ने इस एक मात्र वर्ग के लिए कोई अधिकार सुरक्षित नहीं किया, यह वर्ग मात्र सेवा कार्य के लिए था, इसके लिए सिर्फ़ कर्तव्य सुनिश्चित किये गए थे। इस वर्ग का जीवन अन्य उच्च वर्गों की इच्छा पर निर्भर था और दैनिक जीवन के कार्यकलाप भी। हज़ारों वर्षों से व्यवहार में शामिल यह नियमावली और मनुवादी मानसिकता आज भी नहीं बदली है। अब जबकि संविधान ने सबको बराबरी का अधिकार दे दिया है, इस वर्ग को भी अन्य वर्गों के समान अधिकार और सुविधाओं तक पहुँच के अवसर प्रदान किये हैं तब भी इसके सदस्यों को अधिकारों से वंचित रखने के लिए प्रारंभ में उसी नियमावली का प्रयोग किया जाता है और फिर हिंसा, प्रताड़ना के नए-नए आधार व तरीके इस्तेमाल में लाए जाते हैं। आज भी कितने गाँवों में इस वर्ग के सदस्य मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं, सार्वजनिक जलस्रोतों का उपयोग कर सकते हैं, उच्च वर्ग के घरों में बराबरी से बैठ सकते हैं, कितने शासकीय विद्यालयों में अन्य बच्चों के साथ इस वर्ग के बच्चे बैठ सकते हैं? ऐसे ही कुछ आसान सवालों के जवाब पर ग़ौर करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग इस वर्ग के अधिकारों का दमन कर रहा है।
       धर्म, जाति को आधार बनाकर रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य व कई अन्य सुविधाओं से वंचित रखने के लिए हज़ारों सालों से व्यवहार में लाई जा रही साजिशों - जो कि निरंतर व्यवहार में रहने के कारण परंपरा में बदल चुकी हैं - ने इस समुदाय के अधिकांश हिस्से को नियतिवादी बना दिया है। यही उन तमाम साजिशों का मक़सद भी है, क्योंकि अत्याचार, अपमान को अपनी नियति मान लेना विरोध में उठ सकने वाले हर क़दम को पहले ही बेड़ियों में जकड़ देता है।
       इन साजिशों और मनुवादी मानसिकता के चलते यह वह वर्ग है जिससे सदैव उसके अधिकार छीने गए हैं, सुनियोजित ढंग से जिसका दमन किया गया है। अपनी श्रेष्ठता के दंभ में डूबे उच्च वर्ग द्वारा जिसे बद से बद्तर स्थिति में और अपने नियंत्रण में बनाए रखने के लिए निरंतर प्रताड़ित किया जाता है। अब चाहे इसे "दलित - यानि दबा हुआ" संबोधित किया जाए या फिर "दमित - यानि दबाया गया।"
(मई २००९ में अपनी सांगठनिक पत्रिका "पैरवी संवाद" के लिए लिखे गए आलेख का अंश)

1 टिप्पणी:

  1. क्या आप सवतंत्रता सेनानी व् बेचरा मज़दूर पत्रिका क संपादक बिशम्बर दत्त शर्मा उर्फ बी डी लंदन तोड़ को जानते है mera whatsapp no 7830328782

    जवाब देंहटाएं